खुली जो आँख तो देखा कि,
सिरहाने पर वो खड़ा था
गुमसुम सा, ऊँघता हुआ
अपने कांपते हाथों से दामन समेटता
जैसे बाँट चुका था वो
जो सब कुछ लाया था उधार में,
कुछ ख्वाब थे, कुछ कहानियां थी
दिन भर के कुछ शिकस्ता शिकवे थे
कुछ थके हुए कदमों का बाकी जूनून था
और फिज़ा में बौराई हुई मिट्टी कि खुशबू |
रात भर बांटा था उसने अपना वजूद
और सुबह फिर निकल पड़ा
कुछ और उधार कि तलाश में
जैसे उसके शफ़क में वो आग नहीं जो मुझे जलाती है |
- Gyan 06th October 2011
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