तुमको देखकर सोचता हूँ,
हम दोनों कितने अलग हैं ।
बिल्कुल नदी के दोनों तीरों की तरह,
दो घाट, बिल्कुल आमने - सामने ।
तुम्हारे घाट पर भीड़ आती है,
पूजा - अर्चना के लिए,
मंगल आरती करने के लिए ।
और मैं, श्मशान की तरह -
निर्जन, शांत और नीरस ।
जाने ये कौन सी नदी है बीच में,
जो मुझे तुमसे जोड़ती है ?
बहती है हमारे बीच में -
मंथर, कल - कल, और निर्बाध ।
तुम्हारी पूजा के फूल भी,
मेरी चिता के भस्म भी -
दोनों बह जाते हैं इसमें ।
ना कुछ तेरा, ना कुछ मेरा,
सब कुछ इस नदी का हो जैसे ।
मैं नहीं, तुम भी नहीं -
तो भी यह नदी यूँ ही बहेगी,
किन्हीं और घाटों को छूते हुए ।